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प्रतिज्ञा

झिड़ककर कह दिया--इस वक्त मुझसे कुछ न कहो पूर्णा। मुझे कोई बात नहीं सुहाती। मैं जन्म ही से प्रभागिनी हूँ, नहीं तो इस घर में आती ही क्यों? तुम आती ही क्यों? तुम आईं, तो समझी थी और कुछ न होगा, तो रोना ही सुना दूँगी; पर बात कुछ और ही हो गई। तुम्हारा कोई दोष नहीं है, यह सब मेरे भाग्य का दोष है। इस वक्त जाओ, मुझे ज़रा एकान्त में रो लेने दो--तब पूर्णा को वहाँ से उठ जाने के सिवा और कुछ सूझ न पड़ा। वह धीरे से उठकर दबे पाँव अपने कमरे में चली गई। सुमित्रा एकान्त में रोई हो, या न रोई हो; पर पूर्णा अपने दुर्भाग्य पर घण्टों रोती रही। अभी तक सुमित्रा को प्रसन्न करने की चेष्टा में वह इस दुर्घटना की कुछ विवेचना न कर सकी थी। अब आँखों से आँसुओं की बड़ी-बड़ी बूँदें गिरती हुई वह इन सारी बातों की मन-ही-मन आलोचना

करने लगी। कमलाप्रसाद क्या वास्तव में एक साड़ी उसके लिये लाये थे? क्यों लाये थे? एक दिन छोड़कर तो वह फिर कभी कमलाप्रसाद से बोली तक नहीं थी। उस दिन भी वह स्वयं कुछ न बोली थी कमलाप्रसाद की ही बातें सुन रही थी। हाँ, उससे अगर भूल हुई, तो यही कि वह वहाँ आने पर राज़ी हो गई; लेकिन करती क्या; और अवलम्ब ही क्या था? कोई आगे-पीछे नज़र भी तो न आता था! आख़िर जब इन्हीं लोगों का दिया खाती थी, तो यहाँ आने में कौन-सी बाधा थी? जब से वह यहाँ आई, उसने कभी कमला से बातचीत नहीं की। फिर कमला ने उसके लिए रेशमी साड़ी क्यों ली? वह तो एक ही कृपण है, यह उदारता उनमें कहाँ से आ गई?

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