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प्रतिज्ञा

सुमित्रा ने भी तो साड़ियाँ न माँगी थीं। अगर उसके लिये साड़ी लानी थी, तो मेरे लिए लाने की क्या ज़रूरत थी? मैं उसकी ननद नहीं, देवरानी नहीं, जेठानी नहीं केवल आसरैत हूँ।

यह सोचते-सोचते सहसा पूर्णा को एक ऐसी बात सूझ गई, जिसकी सम्भावना की वह कभी कल्पना भी न कर सकी थी। वह ऐसी काँप उठी, मानों कोई भयङ्कर जन्तु सामने आ गया हो। उसका सारा अन्तःकरण, सारी चेतना, सारी आत्मा मानों अन्धकारमय शून्य में परिणत हो गई--जैसे एक विशाल भवन उसके ऊपर गिर पड़ा हो। कमलाप्रसाद उसी के लिए तो साड़ी नहीं लाये? और सुमित्रा को किसी प्रकार का संशय न हो, इसलिए वैसी ही एक साड़ी उसके लिए भी लेते आये हैं? अगर यह बात है तो महान् अनर्थ हो गया। ऐसी दशा में क्या वह एक क्षण भी इस घर में रह सकती है? वह मजूरी करेगी, आटा पीसेगी, कपड़े सिएगी, भीख माँगेगी पर यहाँ न रहेगी। यही सन्देह इतने दिनों सुमित्रा को उसकी सहेली बनाये हुए था? यदि ऐसा था, तो सुमित्रा ने उससे स्पष्ट क्यों न कह दिया; और क्या पहले ही दिन से उसे बिना किसी कारण के यह सन्देह हो गया? क्या सुमित्रा ने मेरे यहाँ आने का आशय ही कुत्सित समझा? क्या उसके विचार में मैं प्रेम-क्रीड़ा करने ही के लिए आई और लाई गई इसके आगे पूर्णा और कुछ सोच न सकी। लम्बी, ठण्डी, गहरी साँस खींचकर वह फर्श पर लेट गई; मानों यमराज को आने का निमन्त्रण दे रही हो। हा भगवान्! वैधव्य क्या कलङ्क का दूसरा नाम है!!

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