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प्रतिज्ञा

लेकिन इस घर का त्याग देने का सङ्कल्प करके भी पूर्णा निकल न सकी। कहाँ जायगी? जा ही कहाँ सकती है? इतनी जल्दी चला जाना, क्या इस लांछन को और भी सुदृढ़ न कर देगा। विधवा पर दोषारोपण करना कितना आसान है। जनता को उसके विषय में नीची से नीची धारणा करते देर नहीं लगती; मानो कुवासना ही वैधव्य की स्वाभाविक वृत्ति है, मानो विधवा हो जाना, मन की सारी दुर्वासनाओं सारी दुर्बलताओं का उमड़ आना है। पूर्णा केवल करवट बदलकर रह गई।

भोजन करने जाते समय सुमित्रा पूर्णा को साथ ले लिया करती थी। आज भी उसने आकर कमरे के द्वार से पुकारा। पूर्णा ने बड़ी नम्रता से कहा--बहन, आज तो मुझे भूख नहीं है। सुमित्रा ने फिर आग्रह नहीं किया; चली गई।

बारह बजे के पहले तो कमलाप्रसाद कभी अन्दर सोने न आते; लेकिन आज एक बज गया, दो बजे; फिर भी उनकी आहट न मिली। यहाँ तक कि तीन बजे के बाद उसके कानों में द्वार बन्द होने की आवाज़ सुनाई पड़ी। सुमित्रा ने अन्दर से किवाड़ बन्द कर लिये थे। कदाचित् अब उसे भी प्राथा न रही; पर पूर्णा अभी तक उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। यहाँ तक कि शेष रात भी इन्तज़ार में कट गई। कमलाप्रसाद नहीं आये।

अब समस्या जटिल हो गई! सारे घर में इसकी चर्चा होगी। जितने मुँह हैं उतनी ही बातें होंगी; और प्रत्येक मुख से उसका रूप और आकार कुछ बड़ा होकर ही निकलेगा। उन रहस्यमय कनफुसकियों

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