पृष्ठ:प्रतिज्ञा.pdf/९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रतिज्ञा

और सङ्कतों की कल्पना करके तो उसका हृदय मानों बैठ गया। उसने मन-ही-मन ईश्वर से प्रार्थना की--भगवन्, तुम्हीं अब मेरे अवलम्ब हो, मेरी लाज अब तुम्हारे ही हाथ है!

पूर्णा सारे दिन कमला से दो-चार बातें करने का अवसर खोजती रही; पर वह घर में आये ही नहीं और मर्दानी बैठक में वह स्वयं संकोच-वश न जा सकी। आज इच्छा न रहते हुए भी उसे भोजन करना पड़ा। उपवास करके लोगों को मनमानी आलोचनाएँ करने का अवसर वह क्यों देती?

यद्यपि सुमित्रा ने इन दो दिनों से उसकी ओर आँख उठाकर देखा भी नहीं; किन्तु आज सन्ध्या-समय पूर्णा उसके पास जाकर बैठ गई। सुमित्रा ने कहा--आओ बहन, बैठो। मैंने तो आज अपने दादा जी को लिख दिया है कि आकर मुझे ले जायँ यहाँ रहते-रहते जी ऊब गया है।

पूर्णा ने मुस्कराकर कहा--मैं भी चलूँगी; यहाँ अकेली कैसे रहूँगी?

सुमित्रा--नहीं, दिल्लगी नहीं करती बहन! यहाँ आए बहुत दिन हो गये, अब जी नहीं लगता। कल महाशय रात भर गायब रहे। शायद समझते होंगे कि मनाने आती होगी। मेरी बला जाती। मैंने अन्दर से द्वार बन्द कर लिये।

पूर्णा ने बात बनाई--बेचारे आकर लौट गये होंगे।

सुमित्रा--मैं सो थोड़े ही गई थी। वह इधर आये ही नहीं। समझा होगा--लौंडी मनाकर ले जायगी! यहाँ किसे गरज़ पड़ी थी?

९०