पृष्ठ:प्रतिज्ञा.pdf/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रतिज्ञा

पूर्णा--मना लाने में कोई बड़ी हानि तो न थी?

सुमित्रा--कुछ नहीं, लाभ ही लाभ था। उनके आते ही चारों पदार्थ हाथ बाँधे सामने आ जाते, यही न!

पूर्णा--तुम तो हँसी उड़ाती हो। पति किसी कारण रूठ जाय, तो क्या उसे मनाना स्त्री का धर्म नहीं है?

सुमित्रा--मैं तो आपही कहती हूँ, भाई! स्त्री-पुरुष के पैरों की जूती के सिवा और है ही क्या? पुरुष चाहे जैसा हो--चोर हो ठग हो, व्यभिचारी हो, शराबी हो--स्त्री का धर्म है कि उसकी चरण-रज धो-धोकर पिये। मैंने कौन-सा अपराध किया था, जो उन्हें मनाने जाती, ज़रा यह भी तो सुनूँ?

पूर्णा--तुम्ही अपने दिल से सोचो।

सुमित्रा--खूब सोच लिया है। आप पैसे की चीज़ तो कभी भूलकर भी न लाये। दस-पाँच रुपए तो कई बार माँगने पर मिलते हैं। दो-दो रेशमी साड़ियाँ लाने की कैसे हिम्मत पड़ गई? इसमें क्या रहस्य है, इतना तो तुम भी समझ सकती हो। अब ठीक हो जायँगे। पूछो, अगर ऐसे ही बड़े छैला हो, तो बाज़ार में क्यों नहीं मुँह काला करते? या घर ही में कम्पा लगाने के शिकारी हो। मुझे पहले ही से शङ्का थी और कल तो उन्होंने अपने मन का भाव प्रकट ही कर दिया।

पूर्णा ने ज़रा भौहें चढ़ाकर कहा--बहन, तुम कैसी बातें करती हो? एक तो ब्राह्मणी, दूसरे विधवा; फिर नाते से बहन, मुझे वह क्या कुदृष्टि से देखेंगे? फिर उनका कभी ऐसा स्वभाव नहीं रहा।

सुमित्रा पान लगाती हुई बोली---स्वभाव की न कहो पूर्णा!

९१