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प्रतिज्ञा

सुमित्रा अपने कमरे से दबे पाँव निकलकर इधर-उधर सशंक नेत्रो से ताकती, मर्दाने कमरे की ओर चली जा रही थी। पूर्णा समझ गई, आज रमणी का मान टूट गया; बात ठीक थी। सुमित्रा ने आज पति को मना लाने का सङ्कल्प कर लिया था। वह कमरे से निकली, आँगन को भी पार किया, दालान से भी निकल गई, पति-द्वार पर भी जा पहुँची। वहाँ पर एक क्षण खड़ी सोच रही थी, कैसे पुकारूँ? सहसा कमलाप्रसाद के खाँसने की आवाज़ सुनकर वह भागी, बेतहाश भागा; और अपने कमरे में आकर ही रुकी। उसका प्रेम-पीड़ित हृदय मान का खिलौना बना हुआ था। रमणी का मान अजेय है, अमर है, अनन्त है!

पूर्णा अभी तक द्वार पर खड़ी थी। उसे इस समय अपने सौभाग्य के दिनों की एक घटना याद आ रही थी, जब वह कई दिन के मान के बाद अपने पति को मनाने गई थी; और द्वार पर से ही लौट आई थी। क्या सुमित्रा भी द्वार पर ही से तो न लौट आएगी? वह अभी यही सोच रही थी सुमित्रा अन्दर आती हुई दिखाई दी। उसे जो संशय हुआ था, वही हुआ। पूर्णा के जी में आया कि जाकर सुमित्रा से पूछे, क्या हुआ। तुम उनसे कुछ बोलीं या बाहर ही से लौट आई; पर इस दशा में सुमित्रा से कुछ पूछना उचित न जान पड़ा। सुमित्रा ने कमरे में जाते ही दीपक बुझा दिया, कमरा बन्द कर लिया और सो रही!

किन्तु पूर्णा अभी तक द्वार पर खड़ी थी। सुमित्रा की वियोग-व्यथा कितनी दुःसह हो रही है, यह सोचकर उसका कोमल हृदय द्रवित हो गया। क्या इस अवसर पर उसका कुछ भी उत्तरदायित्व न था?

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