पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१०४

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कल्पना-सुख हे कल्पना सुखदान । तुम मनुज जीवन प्रान ।। तुम विसद व्योम समान । तव अन्त नर नहिं जान । प्रत्यक्ष, भावी, भूत । यह रगे निविध जु सूत ॥ तव तानि प्रकृति सुतार । पट बिनत सुचि ससार ॥ येहि विश्व को विश्राम । अरु कछुक जो है काम ॥ सबको अहो तुम ठाम । तव मधुर ध्यान ललाम ।। तव मधुर मूत्ति अतीत । है करत हीतल सीत ॥ व्याकुल करन को मीत । तुम करहु कबहु सभीत ।। शैशव मनोहर चिन ! तुम रचहु कबहुँ विचित्र ।। मनु धूल धूसर वाल । पितु गोद खेलत हाल ॥ तव सुखद भावी मूत्ति । जेहि कहत आशा-स्फत्ति ॥ मनुजहिं रखे विलमाय । जासो रहे सुख पाय ।। नवजात शिशु को व्यान । हुलसावही पितु प्रान ।। वह कमल कोमल-गात । जनु खेल्हि कहि तात || कहुँ प्रेममय ससार । नव प्रेमिका को प्यार ॥ कल्पित सुछाया चिन । बहु रचहु तुम जग भित्त ।।