पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१३७

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राते नैन कोन्हे तू कहा ते मदमाते पिक, सीखी यह बातें नेक धोर धरिके कहो। सुनत न और की गुनत कछु और ही, 'प्रसाद' कौन बात जो अधीरता इती गहो ।। विसुक विसेखि कचनार को निरेखि तेहि, डार वैठि ऐठि कौन रगराते है रहो ॥ हेरौ मलयानिल, बसन्तहि को टेरौ हो, लगाये धुन कोन की, कही तो कोन को चहौ ॥ कौन सुख पाय टक लाय अहो चातक यो, घन ओर देखत सबै सुधि बिसारि कै॥ दीन देखि दया जोगि जानि के क्बी तो वह, एक दया दीठि सम बूंद देहै डारिदै । सोक ना पिघलिहै पखान वनि सोपी हिये, मोती जानि राखिह 'प्रसाद निरधारि कै ॥ फारिकै निरिहै तक वा वेधो जाइहै, ना फल कछु पाई है यो प्रीति को पसारि के। सीचे जौन प्रेम सो प्रमोद ताके उर होत, सौरभ उदोत अति सुन्दर हौ नेम के ॥ परम पुनीत परिमल के निकेत जासो, सीतल है हीतल 'प्रसाद' अति छेम के । सिरिस सुमन सुकुमार तुम जैसे वैसे, भ्रमर विनोद मे घरैया नव नेम के। कल कुसुमाकर के केवल रतन तुम, कानन मे पुय पूर पोखे पुज प्रेम के॥ सरिता सुकूलन में तपसी बने से तरु, सरल सुभाव खडे हृदय उदार ते॥ छाया देत काहू को पथिक जौन तापित है, तोछन दिवाकर ते दुखित दवार ते ॥ नवल प्रमोद सो करत हिय मोद मय, सुन्दर सुस्वादु फल देत निज डार ते॥ स्वारथ मे मूढ नर थोडे निज लाभ हेतु, तक ताहि काटत है कुमति कुठार ते ।। प्रसाद वाङ्गमय ॥७४।