पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१४१

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मिलि रहे माते मधुपर मनमोद भरे, सिलि रहे सुमन सुगन्ध सरमाये, देत ॥ सीरी कछु भीनी-सी समीर हू चलत जौन, मिलित पगग है गुलाल धगराये देत ॥ बरखा-मी कीन्ही है बसत मकरन्द विदु, कमल-कली की पिचुकारियां चलाये देत ॥ वैठिके रसालन पी डालन पै कूकि-कूति, तैसी पिपाति हू धमार घुन गाये देत ॥ भले अनुराग में रगे हो प्रियप्रान भाज, ऐमो अनुरुप दरसन मिल्यो भाग सो॥ प्रेम-कुञ्ज भीतर चलो तो, हृदयासन पं बैठो नेक रूखे है भरो नहिं विराग सो ॥ गारियां सुनोगे जापै आज याते सक्ति है, तोरो न मनामुकुल माल वाचे ताग सा॥ अकभरि भेटा तो 'प्रसाद' परिपूरित हो लीलाही ते मन मरुभूमि खिल वाग सा ।। आवै इठलात जलजात पात को सो विदु, फैधौं सुली सीपी माहि मुक्ता दरस है। क्ढी जोश ते क्लोलिनी के सीकर सो, प्रात-हिमवन-सो, न सीतल परम है॥ देवे दुख दूनो उमगत अति आनद सो, जान्यो नहिं जाय यहि पौन सो हरस है । तातो-तातो कढि स्से मन को हरित करै एरे मेरे आसू । तें पियूप ते सरस है ।। प्रेम की प्रतीति उर उपजी सुवाइ सुख, जानियो न भूलि याहि छलना अनग की। खैचि मनमोहा ते काट-पेंच कोन करै, चली अब ढीली बाढ प्रेम के पतग की। मूदै हम खोलें किन छाइ छबि एक तैसी, प्यासी भरी आखें स्प सुधा के तरग को ।। उनते रह्यो न भेद बिछुरे मिल मे, भई, बिछुरनि मीन की औ' मिलनि पतग की। प्रमाद वाङ्गमय ।।७८॥