पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२०३

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लगा, पुष्पाधार, सजाये कुसुमित क्यारियाँ, मौन खडे थे सुन्दर मालाकार-से, कृत्रिम भंवर न गूंज रहा था त्रास से । सुन्दर मणिमय मच मनोरम था बैठे थे उपधान सहारे हिन्द अक्सर शाहशाह चिवुक पर पर धरे। अभिवादन कर, सडे रहे निर्दिष्ट निज- स्थानो पर सव चतुर शिरोमणि मनिगण उस प्रभावशाली सतेज दरवार म क्षत्रिय नरपतिगण भी सविनय थे झुके। तब रहीमखां के प्रति रव करके, चतुर- अक्वर ने कुछ हंस कर पूछा व्यग से- "कहिए यहाँ आगरे की जलवायु से स्वास्थ्य हुआ और ठोक आपका या नहीं?" कहा खानखाना ने सिर नीचे दिये- "शहशाह अब भा कुछ वैसा है नही जैसा अच्छा होना हूँ मै चाहता, इसीलिए अब मेरी है यह प्राथना मुझे हुक्म हो तो जाऊँ काश्मीर ही, क्योकि वही जलवायु मुझे है स्वास्थ्यकर, यही बताया है हकीम ने भी मुझे।" अक्बर ने फिर कहा-"भला यह तो कहो, क्योकर ऐसा स्वास्थ्य तुम्हारा हो गया" वहा खानदाना ने फिर कुछ नम्र हो- 'वस हुजूर, मुझसे न । वही कहलाइए जिसे आपसे कहा नही मै चाहता। क्षमा कीजिये । यदि आज्ञा होगी कहा । मुझे फिर सच कहना ही पडेगा।" अकबर ने तव कहा-"सत्य निभय कहो।" कहा खानखा ने झुक कर-"जिस दिवस मुझे बनाकर सैनप भेजा आपने कि हा, प्रसाद वाङ्गमय ॥१४०॥