पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२२८

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- जब ये हमारे हैं, भला फिर किसलिये हम छोड दें दुष्प्राप्य को, जो मिल रहा सुखसूत्र उसको तोड दें जिसके बिना फीके रहे सारे जगत्त-सुख भोग ये उसको तुरत ही त्याग करने को बताते लोग ये उस ध्यान के दो बूंद आंसू ही हृदय-सवस्व हैं जिस नेत मे हो वे नहीं समझो कि वे ही नि स्व हैं उस प्रेममय सर्वेश का सारा जगत् ओ' जाति है ससार ही है मित्र मेरा, नाम को न अराति है फिर, कौन अप्रिय है मुझे, सुख दुख यह सब कुछ नहीं केवल उसी की है कृपा आनन्द और न कुछ ही हमको रलाता है कभी, हाँ, फिर हंसाता है कभी जो मौज में आता जभी उसके, अहो करता तभी वह प्रेम का पागल बडा आनन्द देता है हमें हम रूठते उमसे कभी, फिर भी मनाता है हमें हम प्रेम-मतवाले बने, अब कौन मत-वाले बनें मत धम सका ही बहाया प्रेमनिधि-जल में घने आनन्द आसन पर सुघा-मन्दाकिनी में स्नात हो हम और वह बैठे हुए हैं प्रेम-पुलकित-गात हो यह देख ईर्ष्या हो रही है सुन्दरी । तुमको अभी दिन बीतने दो दो कहा, फिर एक देखोगी कभी फिर वह हमारा हम उसी के, वह मी, हम वह हुए तव तुम न मुझसे भिन्न हा, सब एक ही फिर हो गये यह सुन हसी वह मूर्ति करुणा की हुई कादम्बिनी फिर तो झडी सी लग गई भानन्द के जल की घनी कानन कुमुम ॥१६७॥