मधुकर-गण का पुञ्ज नहीं इस ओर फिरा है कुसुमित कोमल कुज बीच वह अभी घिरा है मलयानिल मदमत्त हुआ इस ओर न आया इसके सुन्दर सौरभ का कुछ स्वाद न पाया तिमिर भार फेलाती सी रजनी यह आई सुन्दर चन्द्र अमन्द हुमा प्रकटित मुखदाई स्पश हुआ उस लता लजीली से विधु-कर का विकसित हुई प्रकाश क्यिा निज दल मनहर का देखो देखो, खिलो क्ली अलि-कुल भी आया उसे उडाया मारत ने पराग जो पाया सौरभ विस्तृत हुआ मनोहर अवसर पाकर म्लान वदन विक्साया इस रजनी ने आकर कुलवाला सी लजा रही थी जो वासर मे रूप अनूपम सजा रही है वह सुग्वसर मे मधुमय कोमल सुरभि पूण उपवन जिससे है तारागण की ज्योति पडी फीकी इससे है रजनी म यह खिली रहेगी किस आशा पर मधुकर का भी ध्यान नही है क्या पाया फिर अपने सदृश समूह तारिका का रजनी भर निनिमेप यह देख रही है कैसे सुग्व पर क्तिना है अनुराग भरा इस छोटे तन मे निशा-ससी का प्रेम भरा है इसके मन म 'रजनी-गवा' नाम हुआ है साथक इसका चित्त प्रफुल्लित हुआ प्राप्त कर सौरभ जिसका कानन कुसुम ॥१६९ ॥