पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२३६

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ठहरो वेगपूर्ण है अश्घ तुम्हारा पथ मे कैमे कहा जा रहे मित्र | प्रफुल्लित प्रमुदित जैसे देखो, आतुर दृष्टि किये वह कौन निरखता दयादृष्टि निज डाल उसे नहिं कोई लखता 'हट जाओ' की हुकार से होता है भयभीत वह यदि दोगे उसको सान्त्वना, होगा मुदित सप्रीत वह उसे तुम्हारा आश्रय है, उसको मत भूलो अपना बाधित जान गव से तुम मत फूलो कुटिला भृकुटी देख भीत कम्पित होता है डरने पर भी सदा काय में रत होता है यदि देते हो कुछ भी उसे, अपमान न करना चाहिये उसको सम्बोधन मधुर से तुम्हे बुलाना चाह्येि तन न जाओ मित्र | तनिक उसकी भी सुन लो जो कराहता खाट धरे, उसको कुछ गुन लो क्वश स्वर की बोल कान मे न सुहाती है मीठी बोली तुम्हे नही कुछ भी आती है सके नेतो मे अश्रु है, वह भी बडा समुद्र है अभिमान-नाव जिसपर चढे वह तो अति ही क्षुद्र है कानन कुसुम ॥१७॥