पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२५१

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खंजन व्याप्त है क्या स्वच्छ सुपमा सी उपा भूलोक मे स्वणमय शुभ दृश्य दिखलाता नवल आलोक मे शुभ्र जलघर एक दो कोई कही दिखला गये भाग जाने का अनिल-निर्देश व भी पा गये पुण्य-परिमल अङ्ग से मिलने लगा उत्लास से हस मानस का हँसा कुछ बोलकर आवास से मल्लिका महकी, भली-अवली मधुर मधु से छकी एक कोने की कली भी गन्ध वितरण कर सकी वह रही थी कृल में लावण्य की सरिता अहो हंस रही थी कल-कलध्वनि से प्रफुरिलतगात हो खिल रहा शतदल मधुर मकरन्द भी पड़ता चुआ सुरभि सचय-कोश सा आनद से पूरित हुआ शरद के हिम-बिन्दु मानो एक मे ढाले हुए दृश्यगोचर हो रहे है प्रेम से पाले हुए है यही क्या विश्ववपुपी शारदी साकार हो सुन्दरी है या मि सुपमा का सड़ा आकार हो कौन नीलोज्ज्वल युगल ये दो यहां पर खेलते हैं झडी मकरन्द की अरविन्द मे ये झेलते क्या समय था, ये दिखाई पड गये, कुछ तो कहो सत्य | क्या जीवन शरद के ये प्रथम राजन अहो प्रसाद वाङ्गमय ।।१९०॥