पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२९२

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अव्यस्थित को कुछ शान्त, भ्रान्त, विश्व के नीरव निजन मे। जव करता हूं वेकल, चचल, मानस होती है कुछ ऐसी हलचल, हो जाता है भटक्ता है भ्रम के वन मे, विश्व में कुसुमित कानन मे। जब देता हूँ आभारी हो, बरलरियी से दान कलियो की माला बन जाती, अलियो का हो गान, विक्लता वढती हिमवन मे, विश्वपति। तेरे आंगन मे। जव परता हूँ कभी प्राथना, सरित विचार, तभी कामना के नूपुर की, हो जाती झनकार, चमत्त होता हूँ मन में, विश्व के नीरव निर्जन में। सरना ।। २३५॥