पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३०३

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क्सिके अन्त करण अजिर मे. अखिल व्योम का लेकर मोती। आँसू का बादल बन जाता, फिर तुपार की वर्षा होती। विपयशून्य किसकी चितवन है, ठहरी पलक अलक मे आलस । किसका यह सूखा सुहाग है, छिना हुआ क्सिका सारा रस । निझर कौन बहुत बल खाकर, बिलखाता ठुकराता फिरता। खोज रहा है स्थान धरा मे, अपने ही चरणो मे गिरता। किसी हृदय का यह विपाद है, छेडो मत यह सुख का कण है। उत्तेजित कर मत दौडाओ, करुणा का विधान्त चरण है। प्रसाद वाङ्गमय १२४६॥