पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३०५

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चिह्न इस अनन्त पथ के कितने ही, छोड छोड विधाम-स्थान, आये थे हम विकल देखने, नव वसन्त का सुन्दर मान । मानवता के निजन बन मे जड थी प्रकृति शान्त था व्योम, तपती थी मध्याह्न किरण सी प्राणो की गति लोम विलोम । आशा थी परिहास कर रही स्मृति का होता था उपहास, दूर क्षितिज मे जाकर सोता था जीवन का नव उत्लास । द्रुतगति से था दौड लगाता, चक्कर खाता पवन हताश, विह्वल सी थी दीन वेदना, मुँह खाले मलीन अवकाश । हृदय एक नि श्वास फेंककर खोज रहा था प्रेम निकेत, जीर्ण काण्ड वृक्षो के हंसकर खा सा करते सकेत । विखर चुकी थी अम्बरतल मे सौरभ की शुचितम सुख धूल, पृथ्वी पर थे विक्ल लोटते शुष्क पत्र मुरझाये फूल । गोधूली की धूसर छवि ने चित्रपटी ली सकल समेट, निमल चिति का दीप जलाकर छोड चला यह अपनी भेंट। - प्रसाद वाङ्गमय ।। २४८॥