पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३१३

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असन्तोष हरित वन कुसुमित हैं द्रुम-वृन्द, वरसता है मलयज मकरन्द । स्नेह मय सुधा दीप है चन्द, खेलता शिशु होकर आनन्द । क्षुद्र गृह किन्तु हुआ सुख मूल, उसी मे मानव जाता भूल । नील नभ मे शोभन विस्तार, प्रकृति है सुन्दर, परम उदार । नर हृदय, परिमित, पूरित स्वाथ, बात जंजती कुछ नही यथाथ । जहा सुख मिला न उमसे तृप्ति, स्वप्न सी आशा मिली सुषुप्ति । प्रणय की महिमा का मधु माद, नवल सुपमा का सरल विनोद, विश्व गरिमा का जो था सार, हुआ वह लघिमा का व्यापार । तुम्हारा मुक्तामय उपहार हो रहा अश्रुकणो का हार । प्रसाद वाङ्गमय । २५६॥