पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३७१

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है चन्द्र हृदय मे बैठा उस शीतल किरण सहारे सौन्दय सुधा बलिहारी चुगता चकोर अगारे। वलने का सम्बल लेकर दीपक पतग से मिलता जलने की दीन दशा मे वह फूल सदृश हो खिलता | इस गगन यूथिका वन मे तारे जूही से खिलते सित शतदल से शशि तुम क्यो उनमे जाकर हो मिलते ? मत कहो कि यही सफलता कलियो के लघु जीवन की मकरद भरी खिल जायें तोडी जायें बेमन की। यदि दो घडियो का जीवन कोमल वृन्तो मे बीते कुछ हानि तुम्हारी है क्या चुपचाप चू पडे जीते। सब सुमन मनोरथ अन्जलि बिखरा दी इन चरणो म कुचलो न कोट सा, इनके कुछ है मकरन्द कणा मे। निर्मोह काल के काले- पट पर कुछ अस्फुट लेखा सब लिखो पडी रह जाती सुख दुख मय जीवन रेखा । प्रसाद वाङ्गमय ॥३१८॥