पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३७७

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वह हंसी और यह आसू घुलने दे-मिल जाने दे बरसात नई होने दे कलियो को खिल जाने दे। चुन चुन ले रे कन कन से जगती की सजग व्यथाएं रह जायेंगी कहने को जन-रजन करी कथाएँ। जब नील निशा अञ्चल मे हिमकर थक सो जाते है अस्ताचल की की घाटी मे दिनकर भी खो जाते है। नक्षत्र डूब जाते हैं स्वर्गङ्गा की धारा म बिजली वन्दी होती जब कादम्बिनी की कारा मे। मणिदीप विश्व-मन्दिर की पहने किरणो को माला तुम एक अकेली तब भी जलती हो मेरी ज्वाला । उत्ताल जलधि वेला मे अपने सिर शैल उठाये निस्तब्ध गगन के नीचे छाती मे जलन छिपाये। प्रसाद वाङ्गमय । ३२४॥