पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चिर तृपित कठ से तृप्त-विधुर वह कौन अकिञ्चन अति आतुर अत्यन्त तिरस्कृत अथ सदृश ध्वनि कम्पित करता बार बार, धीरे से वह उठता पुकार- मुझको न मिला रे कभी प्यार । सागर लहरो सा आलिङ्गन निष्फल उठकर गिरता प्रतिदिन जल वैभव है सीमा विहीन वह रहा एक कन को निहार, धीरे से वह उठता पुकार- मुझको न मिला रे कभी प्यार। अकरुण वसुधा से एक झलक वह स्मृत मिलने को रहा ललक जिसके प्रकाश में सक्ल कम बनते कोमल उज्ज्वल उदार, धीरे से वह उठता पुकार- मुझको न मिला रे कभी प्यार । प्रसाद वाङ्गमय ॥३६०॥