पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४५९

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पर भी अधिकार करने की चेष्टा के कारण मनु को देवगण का कोपभाजन होना पडा । 'तद्वे देवाना आग आस' (७-४-- शतपथ) इस अपराध के कारण उन्हे दण्ड, भोगना पड़ा। तरुद्रोऽभ्यावत्य विव्याध" (७-४-शतपथ ) इडा देवताओ की स्वसा थी । मनुष्यो को चेतना प्रदान करन वाली थी। इसीलिए यज्ञो म इडा कम होता है। यह इडा का वद्धिवाद श्रद्धा और मनु के बीच व्यवधान बनाने में सहायक होता है। फिर वुद्धिवाद के विकास मे, अविक सुख की खोज मे, दुख मिलना स्वाभाविक है। यह आख्यान इतना प्राचीन है कि इतिहाम म रूपक का भी अद्भुत मिश्रण हो गया है । इसीलिए मनु, श्रद्धा और इडा इत्यादि अपना ऐतिहासिक अस्तित्व रमन हुए, माकेतिक अथ की भी अभिव्यक्ति करें ता मुझे कोई आपत्ति नहीं। मनु अर्थात् मन के दोनो पक्ष, हृदय और मस्तिष्क का सम्बन्ध क्रमश श्रद्धा और इडा से भी सरलता से लग जाता है। श्रद्धा हृदय्य याकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु' (ऋग्वेद १०–१५१-~४) इन्ही सबके आधार पर 'कामायनी' को कथा सृष्टि हुई है । हा 'कामायनी' की कथा शृखला मिलाने के लिए कही कही थोडो बहुत कल्पना को भी काम म ले आने का अधिकार, मैं नही छोड सका हूँ। प्रसाद वाङ्गमय ॥ ४१०॥