पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५४३

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छूटती चिनगारियां उत्तेजना उद्धांत, धधकती ज्वाला मधुर, था वक्ष विकल अशात । वात चक्र समान कुछ था बाधत्ता आवेश, धेय्य का कुछ भी न मनु के हृदय म था लेश, पर पाड उन्मत्त स हो लगे रहने, "आज, देखता हूँ दूसरा कुछ मधुरिमामय साज वही छवि । हा वही जैसे ! किन्तु क्या यह भूल? रही विस्मति सिंधु म स्मृति नाव विक्ल अकूल ? - जम मगिनि एक थी जो काम वाला, नाम- मधुर श्रद्धा था, हमारे प्राण को विधाम- सतत मिलता था उसी से अरे जिसको फूल, दिया करते अघ म मकरन्द, सुपमा मूल। प्रलय मे भो वच रहे हम फिर मिलन का मोद, रहा मिलने का बचा सूने जगत की गोद । ज्योत्स्ना सो निकल आई। पार कर नीहार, प्रणय विधु है खडा नभ में लिये तारक हार । १ प्रमाद वाङ्गमय ।।५०२॥ - *