पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५४८

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"कोमल किसलय के चचल मे नन्ही कलिका ज्यो छिपती सी, गोधूली के धूमिल पट मे दीपक के स्वर मे दिपती सी। मजुल स्वप्नो की विस्मति मे मन का उन्माद निखरता ज्यो, सुरभित लहरो की छाया मे बुरले का विभव विखरता ज्यो, वैमी ही माया मे लिपटी अधरो पर उंगली घरे हुए। माधव के सरस कुतूहल का आखो मे पानी भरे हुए। नीरव निशीथ मे लतिका सो तुम कौन आ रही हो बढती? कोमल वाहे फैलाये सी आलिंगन का जादू पढती । किन इन्द्रजाल के फूलो से रेकर सुहाग पण राग भरे, सिर नीचा कर हो गूंथ रही माला जिमसे मधु धार ढरे? लज्जा ॥५०७॥