पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५५२

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हो नयनो का कल्याण बना आनद सुमन सा विकसा हो, वासती के वन-वैभव मे जिसका पचम स्वर पिक सा हो, जो गूंज उठे फिर नस नस मे मूच्छना समान मचलता सा, आखो के साचे म आकर रमणीय रूप वन ढलता सा, नयनो की नीलम की घाटी जिस रस घन से छा जाती हो, वह कौघ की जिससे अतर की शीतलता ठढक पाती हो। हिलोल भरा हो ऋतुपति का गाधूली की सी ममता हो, जागरण प्रात सा हमता हो जिममे मध्यान्ह निखरता हो। हो चक्ति निकल आई सहसा जो अपने प्राची के घर मे, उस नवल चद्रिका से विछले जो मानस की लहो पर से।