पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५८१

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"श्रद्धे, होगी चन्द्रशालिनी यह भव रजनी भीमा, तुम बन जाओ इस जीवन के की मेरे सुख सोमा। लज्जा का आवरण प्राण को ढक लेता है तम से, उसे अकिंचन कर देता है अलगाता 'हम तुम' से । 1 कुचल उठा आनन्द, यही है बाधा, हटाओ, अपने ही अनुकूल सुखा को मिलने दो मिल जाओ।' जिससे, और एक फिर व्याकुल चुम्बन रक्त खौलता शीतल प्राण धधक उठता है तृषा तृप्ति के मिस से। मे अपने, दो काठा की सधि बीच उस निभूत गुफा अग्नि शिखा बुझ गई, जागने पर जैसे सुख सपने। प्रसाद वाङ्गमय ॥५४६ ।।