पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५९

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द्रष्टा और - युगवोत्र, उभय सवादित है यह ध्यातव्य होना चाहिये। क्या दर्शन और साहित्य को पृथक्श देविने मानने से ऐसा सम्भव है ? लोक-जीवन के लिये अव्यवहाय वस्तु की न तो दशन मे उपयोगिता होगी न साहित्य मे प्रयोजनीयता ही । विस्तार से बचने के लिये यहा निक और सामरस्य के प्रसग छोड रहा हूँ, यद्यपि वे प्रयोजनीय हैं यथावकाश उहे आलोचित किया जायगा। दृष्य के समन्वित मयोजन की प्रक्रिया म एक स्थितिमयी गति और गनिमयी स्थिति प्रस्तुत हो भावरथ के चक्के चला देती है और वाङ्गमय मे चेतना का अन्तमुख सचार हो उठता है-जिसे दशन की वाणी बता कर साहित्य की अभिजात धारा को मर मे सुखाने को उन्हे सुविधा हो जाती है जो अदशन मे उपरमित रहना चाहते है। वाग्रस को चरमावस्था की ओर जाते देखना, या तो वे चाहते ही नही या जानते नही । सुतराम्, 'पुरुषस्य वाग्रस' की सुधा से सुधि वचित रहती है प्रकारन्तरेण जिन्हे काल के बौने चरण ही प्रिय है और जो, उमके उस चिरप्रवाही समग्र धारा के महानिर्घोप से भीत है, जो महाकाल की स्थिति तक जाने को चली है। इस यात्रा का उपक्रम ही काल प्रवाह है, जिसकी उपेक्षा सम्भव नही । दशन एक गतिमय स्थिति है। क्रिया भी है सज्ञा भी दशा भी है दिशा भी। सज्ञा मान मान लेन से उस पर वेदात कथित शुद्ध ब्रह्म जैसी निष्क्रियता का आवरण पड़ जाता है, जिसे हटा उसे सक्रिय करने के अथ ऐसी माया आवश्यक होती है जो स्वय एक आवरण कही जाती है। यदि माया कोई आवरण डाल सकती है तो क्या हटा नही साती? यदि वह ब्रह्म मे क्षोभोत्पाद कर सकती है तो उसे शात भी कर सकती है, कृतित्व तो उसी माया म निहिति वताया जाता है। प्रतीत होता है कि विदेशियो द्वारा आक्रान्त और पराभूत-प्राय जाति जो विकास और प्रगति से दूर जा चुकी थी और आत्ममकुचित सामती युग मे जो रही थी, अपने परमतत्व को, ऐसे निष्क्रिय ब्रह्म रूप के अतिरिक्त अन्य कल्पना करनेम अक्षम थी, जो कि म-बोध होने के साथ हो सक्रिय भी हो। अतएव इतिहास के उन अधेरे क्षणो में अपने साध्य किंवा ब्रह्म को व्यावृत्ति एव त्याग अथवा स यास द्वारा पाने की एक विवशता थी अनुवृत्ति और ग्रहण को समयता पराभूत समुदाय मे सम्भव नही सुतराम भारतीय चितनपारा को तव वाध्य हा कर इस दिशा म मुडना पडा । वही जाति जब स्वतन आया की पराक्रमी जाति प्रसाद वाङ्गमय ॥६८॥