पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

यह अभिनव मानव प्रजा सृष्टि द्वयता मे लगी निरतर ही वर्गों की करती रहे वृष्टि अनजान समस्यायें गढती ग्चती हो अपनी ही बिनष्टि कोलाहल कलह अनत चले, एकता नष्ट हो, बढे भेद अभिलपित वस्तु तो दूर रहे, हा मिले अनिच्छित दुखद खेद हृदयो का हो आवरण मदा अपने वक्षस्थल की जडता पहचान सकेंगे नही परस्पर चले विश्व गिरता पडता तब कुछ भी हो यदि पास भरा पर दूर रहेगी सदा तुष्टि दुख देगी यह संकुचित दृष्टि । अनवरत उठे क्तिनी उमग चुम्बित हो आंसू जलघर से अभिलापाआ के शेल शृग जोवन नद हाहाकार भरा, हो उठती पीडा की तरग लालसा भरे यौवन के दिन पतझड से सूखे जायें बोत संदेह नये उत्पन्न रहे उनसे सतप्त सदा सभीत फैलेगा स्वजनो का विरोध बन कर तम वाली श्याम अमा दारिद्रय दलित विलग्वाती हो यह शस्य श्यामला प्रकृति रमा दुख नीरद म वा इद्रधनुप वदर नर तिने नये रग बन तृष्णा ज्वाला का पतग । प्रमाद वाङ्गमय ।। ५७४॥