पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६१८

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नव मडप मे सिंहासन सम्मुस कितने ही मच तहां, एक ओर रक्से हैं सुन्दर मढे चम से सुखद वहाँ, आती है शैलेय अगुरु की घूमनगघ आमोद भरी, श्रद्धा सोच रही सपने मे 'यह लो मैं आ गयी कहाँ ?' और सामने देसा उसने निज दृढ कर मे चपक लिये, मनु, वह क्रतुमय पुरप। वही मुग सन्ध्या की लालिमा पिये | मादक भाव सामने, सुन्दर एक चित्र सा कौन यहा, जिसे देखने को यह जीवन मर-मर कर सो वार जिये? इडा ढालती थी वह आसव, जिसको बुझती प्यास नही, तृषित कठ को, पो-पी कर भी, जिसमे है विश्वास नही, वह वैश्वानर की ज्वाला सी, मच वेदिका पर बैठी, सौमनस्य निखराती शीतल, जडता का कुछ भास नही । - मनु पूछा "और अभी कुछ करने को है शेष यहाँ " बोली इडा "सफल इतने में अभी कम सविशेष कहा क्या सब साधन स्ववश हो चुके ?" "नही अभी में रिक्त रहा- देश बसाया पर उजडा है सूना मानस देश यहाँ । स्वप्न ।