पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६२१

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कोलाहल मे घिर, छिप वैठे मनु, कुछ सोच विचार भरे, द्वार बद लख प्रजा रस्त सी, कैसे मन फिर धेय्य घरे । शक्ति तरगो मे आदोलन, रुद्र क्रोध भीपणतम । था, महानील-लोहित-ज्वाला का नृत्य सभी से उधर परे । वह विज्ञान मयी अभिलापा, पस लगा कर उडने की, जीवन की असीम आशाएं कभी न नीचे मुडने की, अधिकारो की सष्टि और उनकी वह मोमयी माया, वर्गों की खाइ बन फैली भी नही जो जुडने वी। असफल मनु कुछ क्षुब्ध हा उठे, आकस्मिक बाधा कैसी ! समझ न पाये कि यह हुआ क्या, प्रजा जुटी क्यो आ ऐसी । परित्राण प्राथना विक्ल थी देव क्रोध से बन विद्रोह, इडा रही जब वहा । स्पष्ट हो वह घटना कुचक्र जैसी । 1 "द्वार बद कर दो इनको तो अब न यहाँ आने देना, प्रकृति आज उत्पात कर रही मुझको बस सोने देना कह कर यों मनु प्रगट क्रोध मे, किंतु डरे से थे मन में, शयन कक्ष मे चल सोचते जीवन का लेना-देना! श्रद्धा काप उठी सपने म, सहसा उमकी आग्य खुली, यह क्या देखा मैने ? कैसे वह इतना हो गया छली? स्वजन स्नेह म भय की कितनी आशकाएँ उठ आती, अब क्या होगा, इसी सोच म व्याकुल रजनी बीत चली। r प्रसाद वाङ्गमय ॥५९६॥