पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६३

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'शिव'-निकलता है, पुन मनुष्य उस आलोक्कि सा दय से आदित होकर कहता है--'सय शिव सुन्दरम् । ( इन्दु का फागुन सवत् १९६६-चित्राकार मे सग्रहीत ) कामायनी शियर की यात्रा का यह आदि सोपान है । आसू मे यह दृष्टि सक्रिय और प्रौढतर भाव म मम्मुख आती है--विस्मृति समाधि लेती है जिसमे मगल की सम्भावना का विश्वास दृढ होता है । द्वन्द्व परस्पर उन्मुख दशा म मिलित होते हैं, सग और प्रलय को सध्या तो होती है किन्तु पुन उदित होने की एक मम्भावना लिय- विस्मति समाधि पर होगी वर्षा क्याण जलद की सुख सोये थका हुआ सा चिता छुट जाय विपद की चेतना लहर न उठेगी जीवा समुद्र थिर होगा सन्ध्या हो सग प्रलय को विच्छेद मिलन फिर होगा विस्मृति की अव्युत्थित दशा किंवा स्फुरित अवस्था में जिस स्मति का जागण होता है उसमे वह 'चेतना लहर' नही उठती जिसमे 'जीवन समुद्र' आलोडित हाकर सुख दुस 'विच्छेद मिलन की प्रतीत कराता है । मग प्रलय किंवा उन्मीला निमालन का वह अकाल पदवाच्य मन्धि काल हाता है वहा न ता विरह की वास्तविक्ता है न मिलन का यथाथ न तो सुख की वेदना है न दुख की वेदना, कारण ये सभी द्वन्द्वात्मक और द्वयता परक है और अपने अनुकूल परिस्थिति मे ही जीवत रह सकते है। अद्वय सामरस्यमयी प्रत्यभिज्ञा मे इन्ह कहा स्थान ? किन्तु अभी उसको अर्थात् विस्मति की समाधि दशा है, उसका समग्र तिरोभाव नहीं। और, समाधि से तो व्युत्थान भी सम्भव है । कारण, ज्ञानलेप के रूप लिये, कम और सम्कार की सन्धि म जागरित उस वासना (अनादि) का पूर्णत प्रहीण होना उस समाधि म भी सम्भव नहीं जिसके क्षोभ के परिणाम द्वन्द और विपमता मे वीजभत है । नव हो जगी अनादि वामना मधुर प्रकृतिक भूख समान, चिर-परिचित-सा चाह रहा था, छन्द सुखद करके अनुमान । (आशा) अनुग्रह की मगल मूर्ति की अनुभूति से हो उम विस्मृति का पूणत विदग्य होना सम्भव है, उम शक्ति-शरीरी का प्रसाश, सर शाप पाप का कर विनाश नतन म निरत, प्रकृति गल कर, उस कात्ति सिंधु म धुल मिल कर म्वरूप धरती सुन्दर, क्मनीय बना था भीषणतर, होरप-गिरि पर विद्युत विलास, उल्लसित महा हिम धवल हास प्रमाद वाङ्गमय ।।७२।। अपना -