पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६५९

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रही, नहीं पा सका हूँ मैं जैसे जो तुम देना चाह क्षुद्र पार ! तुम उसमे वित्तनी मधु धारा हो ढाल रही। सब बाहर होता जाता है स्वगत उसे में कर न सका वुद्धि तर्क के छिद्र थे दय हमारा भर न सका। यह कुमार मेरे जीवन का उच्च अश, कल्याण कला क्तिना बडा प्रलोभन मेरा हृदय स्नेह वन जहा ढला । सुखी रहे, सब सुखी रहे बस छोडो मुझ अपराधी को," थदा देख रही चुप मनु के भीतर उठती आधी को। साद वाङ्गमय ॥६३८॥