पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/९४

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चकित नयन ते लखत, पवन क्रीदत अलक्न भो । विमल वीचि के वीच झुक्त झूमत कमलन सो । कोकिल को कलनाद, सुनत धरि ध्यान रसाला। चतुर चितेरे चित्रित, सोह्र रहि वह वाला ॥ लखि मूरति शान्त सुरसरी हूँ को मन्द प्रवाह है। कुञ्जन मे छपिके मुमन, देसत सहित उछाह है ।। उठी बाल धरिगति मराल-मी चली बकुलतर । लागी अवचय करन, कुसुस सुकुमार निहिं कर ॥ कदली पात पिछाइ जतन-सो धरि ता ऊपर । लागी गूंथन माला, छोटे बडे मनोहर ॥ कीरहिँ, मगछौनहि, सिखिहि, यथा उचित पहिरावही । वेऊ नीचे गल किये, पहिरि मनी सुसपावही ।। यद्यपि मुस मुसुक्यात, छिपावत है कपोल म । तद्यपि हासी उछलि रही है दृगविलोल मे ॥ सुधर दन्त की पाति, मनो मुकता चुनिराखे । विमल कान्ति विधुमाहि, सुधाके निन्दुहि राखे । सहज सुमद वालक वदन, मचिसो देखत बनतही । आवत है पग चापिके, तस्ओटन मे छिपतही ॥ कलकिशोर वय चारु, नवल यौवन के रँगसो । वीर रसोज्ज्वल व्यञ्जर मजुल गठा सुअंगसो ।। दया वीर को प्रगट रूप सुमनोहर मोहत । मदनहु वदन जुलखै, रहे ठाढो नहि जोहत ॥ मोहत को नहिं माधुरी, छवि लखि हिय हरवात है। तरुवर हरियालीन मै, बालक विमल विभात है ॥ वाला के हग मी चि, कह्यो "हमको न जु बोलो?" “च द्रकेतु" कहि पुनि बोली, वाला "दृग खोलो।" उठे युगल हंसि दै दे, ताला मनसो हरपत । मनहुँ सरदघन मोतो की बूंदें ज्यो वरसत ॥ तारागन सह चन्द्र, लसै उज्ज्वल हीरन के ज्यो हार, निशा रानी के गर मे ॥ नवल चन्द्रिका की लहरं, तरलित हिय करती। विधु मण्डल ते विमल, सुधा यूँदै ज्या परती ।। अम्बर म। चित्राधार ॥ २९॥