पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/९६

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, चन्द्र सूय्य युगनेन, जवहिं वह अपने पेखत । तबही तममय जगत माहि नर आखिन देसत ॥ लखहु अहै यह व्योमकेग, अवली अति उज्ज्वल । तिनमहं नागमणिा सम तारे लसत समुज्ज्वल ।। गरल कण्ठ सबजन को दोष रहत धारे ही। अग्नि नयन तीसरो, रहत पलकन आडे हो । पराशक्ति वह प्रकृति, मक महँ अति छवि छावत । धम्म-वृषभ की असवारी, मन मह शुचिभावत ।। लसत समीप पडानन, वाहनहूँ को देखो। वीर सिंह चुप माधि, अहो बैठ्यो अवरेखो। तह गणेश को मपक हू को करहु कल्पना । पन्नगहू मन मारि, करत नहिं कछुक जत्पना ।। लवहु परस्पर परम, विरोधी कैसे शुचि सो। पान करत वह प्रेम-सुरसरी धारा रुचि मो ॥ भूननाथ सब भूतन संग क्रीडत है अविरल । पशुपति निज पगुगन, प्रतिपारत प्रेम सहित भल ॥ विशम्भर नित भरत और पोपत निज जन को। तुम सब व्यय पिरोध सहित धारत निज मन को। जो यह अनुचित करहु, विरोध तवै सुनि लीजै । निज विरोध मय राज्य, और काहू को दीजै ॥" तहि छिन तहँ इक वृद्ध, भील सन्मुख चलि आयो। सजल नयन कर बाधि, कह्यो मनसों हरपायो॥ "अहो बहै यह राज्य सबै विपि तुम्हरे लायक । अब सो तुमहिं बनोगे, हम सबके वरनायक ॥' शैशव सरल मंगोच सहित बोल्यो तब बालक । "दादा" तुम तो सवही विधि हो हमरे पालक । घाइ लग्यो अकुलाइ, अक मो है आनन्दित । वृद्ध रुमाली अश्रुन सीचि रियो ति पुलक्ति । शान्त मुखाकृति तापस-वेग तहाँ इक बायो। जेहि को देवत ललिता मुग्व रज्जा सों छायो। चरण गह, यो अति आकुलता, सकोच भरी सो । तापस लियो उठाइ ताहि, सुचि सुमन छगे सो।। चिनाचार॥३१॥