पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१३५

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पुकारन का, मुख अनुभव करा का अभ्यास करा। विधाम का निश्वास, कान भगवान के नाम के साथ ही निकलता है वटी । यमुना गद्गद् हो रही थी। एक दिन भी ऐसा नही बीतता, जिस दिन गोस्वामी आश्रमवासिया को अपनी सान्त्वनामयी वाणी स सन्तुष्ट न करते । यमुना न कहा- महाराज ओर कोई मवा हो, तो आज्ञा दीजिए। मगल इत्यादि न मुझसे अनुराध दिया है कि मैं सर्वसाधारण क लाभ के लिए जाश्रम म कई दिना तक सार्वजनिक प्रवचन करूं। यद्यपि मै इस अस्वीकार करता रहा किन्तु वाध्य होरर मुझे करना ही पडगा । यहा पूरी स्वच्छता रहनी चाहिए । कुछ वाहगे नागा के आने की सम्भावना है। यमुना नमस्कार करक वली गई। कृष्णशरण चुपचाप छे रह । वे एक्टक वृष्णचन्द्र की मूर्ति को आर दख रह थ । यह मूर्ति वृन्दावन की और मूर्तियो म विलक्षण थी। एक श्याम ऊर्जस्वित, वयस्क और प्रसन गम्भीर मूर्ति खडो थी। वाये हाथ स कटि स जाबद्ध नन्दक खडग की मूठ पर वन दिय दाहिन हाथ की अभय मुद्रा म आश्वासन की घोषणा करत हुए कृष्णचन्द्र की यह मूर्ति, हृदय की हलचना को शान्त र दती यो । शिल्पी की क्ला मफत थी। कृष्णशरण एकटक मूर्ति को दख रह य । गास्वामों का आखा स उस समय बिजली निकन रही थी, जा प्रातमा का सजीव बना रहा था। कुछ दर क बाद उनको आखा स जलधारा बह्न नगी । और व आप-ही आप पहन लग-तुम्ही न प्रण किया था कि जब-जब धम की ग्लानि हागी, हम उसका उद्धार करन क लिए जावगे । ता क्या अभी विलम्ब है ? तुम्हार वाद एक शान्ति का दूत आया था, वह दुख का अधिक स्पष्ट बनाकर चला गया। विरागी होकर रहन का उपदश द गया, परन्तु उस शक्ति का स्थिर रखने के लिए शक्ति कहाँ रही ? फिर स बर्बरता जार हिसा ताण्डव-नृत्य करत लगी है-~-चया अब भी विलम्ब जम मूर्ति विचलित हो उठी। एक ब्रह्मचारी न आवर नमस्कार किया। व भा आशीर्वाद दकर उसकी आर घूम पडे । पूछा-मगलदव J --तुम्हार ब्रह्मचारी कहाँ है । आ गय है गुरुदेव । उन सवा का काम बाट दा और क्त्तव्य समझा दा । आज प्राय बहुत-स लाग आवगे। जैसी आज्ञा हो, परन्तु गुरुदव 1 मरी एवं शका है। कफाल १०५