पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१५१

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किशारी और निरजन पाशा नोट आय परन्तु उन दाना क हृदय म शान्ति न थी । काध म किशार - विजय का तिरस्कार दिया फिर भा सहज मातृ स्नह विवाह करने लगा। निरजन स दिन म एकाध वार इम विषय वो लकर दो-दा चाच हा जाना अनिवाय हा गया । निरजन न एक दिन दृढ हाकर इसका निपटारा कर लन का विचार कर लिया वह अपना मामान बँधवान नगा । किशारी न यह ढग नखा। वह जल भुन गई । जिसक लिए उसन पन का छाड दिया वह भी आज जान का प्रस्तुत है | उसन तीव्र स्वर म कहा-क्या अभी जाना चाहत हा? हाँ मन जब ससार छाड दिया है ता क्मिी की वात क्या सन ? क्या झूठ बानत हा तुमन क्य काई वस्तु छाडी थी। तुम्हार त्याग म ता भाल भाल माया म फंसे हुए गृहस्थ कही ऊँच है । अपनी आर दखा हृदय पर हाथ रखकर पूछा । निरजन मर सामन तुम यह कह सकत हो ? ममार आज तुमगा और मुझका क्या समझता है-कुछ इसका भी समाचार जानत हा ? जानता है विशारी ! माया क साधारण झिटक म एक सच्च साधु फस जान ठग जान का यह ज्जित प्रसग जब किसी स छिपा नही-इसीलिए मै जाना चाहता है। तो राकता कान ह जाआ । परन्तु जिसक लिए मन सब कुछ खा दिया है उसे तुम्हा ने मुझस छीन निया-उस दकर जाआ | जाओ तपस्या करा तुम फिर महात्मा बन जाजोगे। मना है पुरुपा तप करन स घारस घार कुकर्मों का भी भगवान क्षमा वरक उह दशन दत हे पर मे हूँ स्त्री जाति । मरा यह भाग्य नहीं मन पाप करक जा पाप बटारा है उस ही मरी गाद म फक्त जाआ। किशारी का दम घुटन लगा। वह अधीर हावर रान लगी। निरजन न जाज अपना नग्न रूप दखा आर वह इतना वीभत्स था कि उसन कंकाल १२१