पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१७०

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शीतकाल क वृक्षो स छनकर आती हुई धूप, वडी प्यारी लग रही थी। नय पैरा पर पैर धर, चुपचाप गाला की दी हुई, चमडे स बंधी एक छोटी-सी पुस्तक को आश्चर्य स दय रहा था । यह प्राचीन नागरी म लिखो हुई थी। उमक अक्षर सुन्दर ता न थ, पर थे बहुत स्पष्ट । नय कुतूहल स उम पढन लगा मेरी क्या बेटी गाला | तुझे कितना प्यार करती हूं इसका अनुमान तुझे छोड कर दूसरा नही कर सकता । वेटा भी मरे ही हृदय का टुकड़ा है, पर वह अपन बाप रे रग म रंग गया-पक्का गूजर हा गया । पर मरी प्यारी गाला । मुझे भरोसा है कि तू मुझे न भूलेगी । जगल क काने में बैठी हुई, एक भयानक पति की पत्नी अपन वाल्यकाल की मीठी स्मृति से यदि अपन मन को न बहलाव तो दूसरा उपाय क्या है ? गाला | सुन, वर्तमान मुख क अभाव म पुरानी स्मृतियो का उन, मनुष्य को पल-भर के लिए सुखी कर सकता है, और तुझे भी अपन जीवन मागे चलकर कदाचित् इसस सहायता मिन इसीलिए मने तुझे थोडा-सा पढाया और इम निखवर छोट जाती हूँ मरी मा मुझे बर्ड गर्व से गाद म बैठाकर वड दुलार मे मुझे अपनी बीती भुनाती, उन्ही विखरी हुई वाता को इकट्टी करती हूँ। अच्छा लो सुना मरी नहानी-- मरे पिता का नाम मिरजा जमाल था। व मुगल-वश के एक शाहजाद थे। मथुरा और आगरा के बीच म, उनकी जागीर के कई गाँव थे पर वे प्राय दिल्ली म ही रहत। कभी-कभी सैर शिकार के लिए जागीर पर चले आते । उन्हें प्रेम था शिकार स और हिन्दी कविता से । सोमदव नामक एक चौब उनका मुसाहिब और कवि था । वह अपनी हिन्दी-कविता सुनाकर उन्हे प्रसन रखता। भरे पिता को सस्कृत और फारसी स भी प्रम था। वे हिन्दी के मुसलमान कवि जायसी क पूर भक्त थे । सोमदेव इसम उनका वरावर साथ दता । मैन भी उसी १४२ प्रसाव वाङ्मय