पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२०

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चाहिए । कार्यालय मत बनाइये, मित्रों के सदृश एक दूसरो को समझाइए, किसी गुरुडम की आवश्यकता नहीं। आर्य सस्कृति अपना तामस त्याग झूठा विराग छोड़कर जागेगी भू पृष्ठ के भौतिक देहात्मवादी चौंक उठेंगे । यान्त्रिक सम्यता के पतन काल मे ही वही मानव जाति का अवलम्बन होगी।" (ककाल, ११४)। 'कंकास' और 'तितली' का यह स्वरूप इरावती मे बदला हुआ दिखाई पड़ता है। वस्तुतः 'इरावती' 'कामायनी' के बाद की कृति है । पुष्यमित्र शुग के काल की कथा वस्तु को आधार बनाकर प्रसाद जी ने इस उपन्यास मे पाप-पुण्य के बजाय अच्छे और बुरे का विचार करते हुए 'ककाल' की ही तरह से इसमें भी प्रयोग करने वाले व्यक्ति की दृष्टि को निर्णायक माना गया है । इस उपन्यास मे प्रसाद के नाटकों की तरह से अतीत से वर्तमान की ओर प्रक्षेपण नहीं है बल्कि इसमे वर्तमान मनुष्य को दशा के आधार पर अतीत को उदाहरण या आदर्श के रूप मे प्रस्तुत किया गया । प्रसाद के नाटको और उपन्यासो की सरचना मे वैसे भी आदर्श और यथार्थ एक दूसरे के सामने रखे हुए शोशे की भांति प्रतीत होते हैं। नाटको मे शीशा आदर्श और अतीत का है प्रतिबिम्ब यथार्थ का है । उपन्यासो मे शीशा यथार्थ का है प्रतिबिम्ब आदर्श का है। और यह प्रतिविम्म समय की दृष्टि से पूर्वार्ध और परार्ध के क्रम से लघु और वृद्धिमान होता रहता है । इरावती उपन्यास अधूरा है कोई निष्कर्ष निकालना उचित नही है परन्तु जितना लिखा गया है उसके चक्रानुक्रम का एक नियम अवश्य बना है। उपन्यास की यही विशेपता है कि वह वर्तमान की तरह से भविष्य को निर्मित करता चलता है । इरावती का अन्त निश्चित है क्योकि उसका सिद्धात निश्चित है । प्रारम्भ से सुनायी पड़ने वाली आनन्द के उद्घोष को वाणी अत तक विद्यमान है। सासारिकता ओर आध्यात्मिकता के समन्वय को नही बल्कि 'सहजता' की चिन्ता हो इरावती का विषय है। कामायनी मे बुद्धिवाद का प्रलयकर स्वरूप है और इच्छा क्रिया और ज्ञान की 'लयता' का उद्घोष उसका एक विकल्प है जो कामायनो को भूमिका के अनुसार लेखक को मानवता के इतिहास के प्रतीक रूपक के रूप में यह स्वीकृत है। 'इरावती' मे विवेकवाद को क्षुद्र और सकुचित दृष्टि का कारण माना गया है। संसार से विच्छिन्न करने वाले विराग और दर्शन की निंदा इस उपन्यास में एक प्रकार से संघर्ष और युद्ध के उद्घोप के रूप में प्रयुक्त हुई है। इसलिए इरावती यदि पूरी हो गई होती तो गद्यात्मक कामायनी होती। यह दृष्टि उस द्विवेदी युगीन चेतना से भिन्न है जिसमे बुद्धिपक्ष को हृदयपक्ष की तुलना मे प्रधान माना गया है । रामचन्द्र शुक्त और जयशकर प्रसाद मे यही अन्तर है कि २४ : प्रसाद वाङमय