पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२३

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ग्राम स्वराज्य है वो वाटसन, शैला, इद्रदेव, तितली आदि के प्रयल से धामपुर म शुरू और सफल होता है । परन्तु प्रसाद जी प्रमुख प्रजातात्रिक मूल्यो 'समता "विश्वव धुत्व और स्वतंत्रता का कहकर नहीं बल्कि बाह्य जगत म व्यक्तियो के व्यवहार से प्रकट और स्थापित करते है। आचरण और वाणी से इन मूल्यो की स्थापना व्यक्तियो क सपर्ष मे ही नहीं, बल्कि रामनाथ, कृष्ण शरण ओर ब्रह्मचारी की स्थापनामा से भी प्रमाणित और सम्पुष्ट होती है। यह दृष्टि प्रसाद को प्रेमचन्द से अलग अवश्य करती है। इस आधार पर विवचन से गोदान के प्रेमचन्द वाममार्गी और तितलो क प्रसाद दक्षिणमार्गी लगत हैं । हिन्दो उपन्यास के आगामी विकास का इस सदर्भ म भो विवचित किया जा सकता है। भारतीय समाज म स्त्रिया को दशा मारतेन्दु को तरह प्रसाद का प्रमुख विषय रही है । सामाजिक चेतना क बदलाव और सामाजिक जीवन के विविध क्षेत्रो को हिस्सेदारी न स्त्रिया को भी अपने अधिकारा के प्रति जागृत किया। यद्यपि यह सारी अधिकार घेतना एक विशेष प्रकार क वर्ग और समाज म ही थी। प्रसाद के नाटको, कहानियो और उपन्यासो मे इस स्त्रो चेतना के विविध रूप मिलते हैं । वस्तुत १५२२ के आस-पास जैसा की प्रेमचद न लिखा है पूरा गगन मुधारसुधार के नारे से निनादित हो रहा था। सुधार को यह आवाज प्रेमचद और प्रसाद दोनो म है। और दोना में धनिया तया यमुना पुरुषो को पराजय और टूट के बाद अपने यथार्थ स्वरूप मे बहो रहता है। प्रसाद ने प्रारभ म स्त्रिया का प्रयोग आदर्शीकृत रूप में किया है। जनमजय के नागयज्ञ' से लेकर चद्रगुप्त तक स्त्रियो का एक आदर्शी कृत स्वरूप मिलता है जिसमें स्थिर चरित्रो का प्रयाग किया गया है। परन्तु ध्वस्वामिनी म यह समस्या भिन्न रूप म आती है। वस्तुत 'प्रतिध्वनि , स स्त्रियो के प्रति प्रसाद का आदर्शीकृत स्वरूप बदला है । और यह बदलाव नेतृत्व के स्तर पर भी है। 'ध्रुवस्वामिनी, तितली' और कामायनी मे स्त्रियां हो प्रतिनिधित्व करती हैं। ककात भी वस्तत यमुना की कथा है। क्योकि ककाल को मूल कथा प्रारभ से अत तक यमुना और विजय पर केन्द्रित है शेप धाराएं मिलती है और साथ-साथ चलती हैं । ठीक वैसे ही जैसे को तितली प्रारम से अत तक विद्यमान है और उपन्यास के अत में वह शैला से अधिक महत्त्वपूर्ण ही नही किसी पुरुष पात्र से भी अधिक साहसी, संघपरत, सहनशोस ओर यतत सफल है। यद्यपि तितली पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के प्रति समर्थन का उपन्यास है जबकि ककाल पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के प्रति पूर्णत असतोप और विद्राह की रचना है। स्त्री और शक्ति के प्रति प्रसाद का मत जीवन दृष्टि, थैव दर्शन और गभोर चितन का परिणाम है। प्राक्कथन २७