पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२३०

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नियत दिन आ गया नाज उत्सव का विराट् आयोजन है। संघ क प्रागण में वितान तना है । चारा आर प्रकाश है। बहुत से दशका की भीड है। गोस्वामीजी निरजन और मगलदव सघ की प्रतिमा के सामन बैठे हैं । एक आर घण्टी, लतिका गाला और सरला भी बैठी हैं । गास्वामीजी न शान्त वाणा म आज के उत्सव का उद्देश्य समझाया और कहा-भारत सघ के सगठन पर आप लोग दवनिरजनजी का व्याख्यान दत्तचित्त हाकर सुन । निरजन का व्याख्यान आरम्भ हुआ-- प्रत्येक समय म सम्पत्ति अधिकार और विद्या न भिन्न भिन्न देशा म जाति वण और ऊंच-नीच की सृष्टि की । जव आप लोग इसे इश्वरकृत विभाग समयन लगते है, तब यह भूल जात है कि इसम ईश्वर का उतना सम्बन्ध नहा जितना उसकी विभूतिया का । कुछ दिनो तक उन विभूतियो का अधिकारी बन रहन पर मनुष्य के सस्कार भी वैस ही बन जात है वह प्रमत्त हा जाता है। प्राकृतिक ईश्वरीय नियम, विभूतिया का दुरुपयोग दखकर विकास को चेष्टा करता है यह कहलाती है उत्क्रान्ति । उस समय कन्द्रीभूत विभूतिया मानव-स्वाथ के बधनो का तोडकर समस्त भूत हित के लिए विखरना चाहता है । वह समदर्शी भगवान की क्रीडा है। भारतवष आज वर्गों और जातिया क बन्धन म जकडकर कष्ट पा रहा है और दूसरो का कष्ट दे रहा है । यद्यपि अन्य दशा म भी इस प्रकार क समूह वन गये है परन्तु यहाँ इसका भीपण रूप है। यह महत्त्व का सस्वार अधिक दिनो तक प्रभुत्व भोगकर खोखला हो गया है। दूसरा की उन्नति स उस डाह हान लगा है। समाज अपना महत्त्व धारण करन की क्षमता तो खो चुका है परन्तु व्यक्तियों को उन्नति का दल वनकर सामूहिक रूप से विराध करन लगा है। प्रत्यक व्यक्ति अपनी छूछी महत्ता पर इतराता हुआ दूसर का नीचा--अपन स छाटा-समझता है, जिसस सामाजिक विषमता का विषमय प्रभाव फल रहा २०२ प्रसाद वाङ्मय