पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

सवस वडी प्रसन्नता तुम दे सकते हो। और, मरी जीविका का उपाय भी कर सकते हो। शैला की इस दीनता से घबराकर इन्द्रदेव न कुर्सी खीचकर बैठते हुए कहा___ शैला | तुम काम-काज की इतनी वात क्रन लगी हा कि मुझ आश्चय हा रहा है । जीवन म यह परिवर्तन सहसा होता है, किन्तु यह क्या तुम मुझको एक बार ही कोई अन्य व्यक्ति क्या समझ बैठी हो ? मै तुमको दान दूंगा? कितने आश्चय की वात है। यह सत्य है इन्द्रदेव । इसे छिपाने से कोई लाभ नही । अवस्था ऐसी है कि अव मैं तुमसे अलग हाने की कल्पना करक दुखी होती है, किन्तु थाडी दूर हटे बिना काम भी नहीं चलता। तुमको और अपने को समान अन्तर पर रखकर कुछ दिन परीक्षा लेकर, तब मन से पूछूगी। क्या पूछागी शैला । कि वह क्या चाहता है । तब तक के लिए यही प्रबन्ध रहना ठीक हागा । मुझे काम करना पडेगा, और काम किय बिना यहा रहना मरे लिए असम्भव है । अपनी रियासत मे मुझे एक नौकरी और रहने की जगह दकर मेर बाझ स तुम इस समय के लिए छुट्टी पा जाओ, और स्वतत्र होकर कुछ अपन विषय म भी सोच लो। शैला बडी गभीरता से उनकी ओर देखत हुए फिर कहन लगी- हम लागा क पश्चिमी जीवन का यह सस्कार है कि व्यक्ति को स्वावलम्ब पर खड होना चाहिए । तुम्हारे भारतीय हृदय म, जो कौटुम्बिक कोमलता म पला ह, परस्पर सहानुभूति की सहायता की बडी आशाएं, परम्परागत सस्कृति के कारण बलवती रहती है। किन्तु मेरा जीवन कैसा रहा है, उस तुमसे अधिक कौन जान सकता है । मुझसे काम लो और बदले मे कुछ दो। ___अच्छा, यह सब मैं कर लूगा, पर मधुबन के शेरकोट का क्या होगा ? मै नही कहना चाहता। मैं न जान क्या मन म सोचेगी। जबकि उन्होने एक बार कह दिया, तब उसके प्रतिकूल जाना उनका प्रकृति के विरुद्ध है। तो भी तुम स्वय कहकर देख लो। यह मैं नही पसन्द करती इन्द्रदव | में चाहती हूं कि जो कुछ कहना हा, अपनी माताजी स तुम्ही कहा । दूसरा स वही बात सुनन पर, जिस कि अपना स सुनने की आशा रहती है-मनुष्य के मन म एक ठेस लगती है। यह बात अपने घर में तुम आरम्भ न करो। २५८ प्रसाद वाङ्मय