पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३०९

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सुना हागा ? वही जा यहा क जमीदार इन्द्रदेव क साथ विलायत स आई है। बडी अच्छी सुशील लडकी है । वह भी मरे यहाँ सस्कृत पढती है । तुम चल कर उन दोनो से वात भी कर लो और देख भी लो। अच्छा, मैं अभी आती हूँ। मैं भी चलता हूँ वेटी। मधुवन उनक सग नही है । मल्लाह का ता सहज दिया है। तो चलू । रामनाथ नहाने क पाट की आर चले। राजकुमारी भी रामदीन की नानी के साथ गगा को आर चली। अभी वह शेरकोट से बाहर निकल कर पथ पर आई थी कि सामन स चौवेजो दिखाई पडे । राजकुमारी ने एक बार घूघट खीचकर मुडते हुए निकल जाना चाहा । किन्तु चौबे ने सामन आकर टोक ही दिया-भाभी है क्या ? अरे मैं ता पहचान ही न मका । दुख में सब लोग पहचान ल एसा तो नही होता । --राजकुमारी न अन खात हुए कहा। अरे नही नही । मै भला भूल जाऊँगा ? नौकरी ठहरी । वराबर सोचता हू कि एक दिन शेरकोट चलू, पर एट्टी मिल तब तो। आज मैने भी निश्चय कर लिया था कि भट करूंगा ही। चौबेजी के मुंह पर एक स्निग्धता छा गई थी, वह मुस्कराने की चेष्टा करन लगे। किन्तु मैं नहाने जा रही हूँ। अच्छी बात है, मैं थोडी दर म आऊंगा। -कहकर चौबेजी दूसरी ओर चल गये, और राजकुमारी को पथ चलना दूभर हो गया । कितने बरस पहले की बात है । जब वह ससुराल म थी, विधवा होने पर भी बहुत-सा दुख, मान-अपमान भरा समय वह बिता चुकी थी। वह ससुराल की गृहस्थी म बोझ-सी हो उठी थी। चचेरी सास के व्यग स नित्य ही घडी दो-घडी कोने में मुंह डाल कर रोना पडता । सब कुछ सहकर भी वही खटना पड़ता। __ससुराल के पुरोहितो म चौबेजी का घराना था । चौवे प्राय आते-जाते-~वैस ही, जैसे घर क प्राणी, और गाव के सहज नाते से राजकुमारी के वह देवर हाते-हंसने-बोलन की वाधा नही थी। राजकुमारी के पति के सामने से ही यह व्यवहार था। विधवा होन पर भी वह छूटा नही । उस निराशा और कप्ट के जीवन मे भी कभी-कभी चौबे आकर हँसी की रेखा खीच देते। दोना के हृदय म एक सहज स्निग्धता और सहानुभूति तितलो २८१