पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३४४

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सौन्दर्यमया गम्भीरता दए कर उन्ह एक अनुभूति हुई थी, उस वह स्पष्ट न कर सक थ। हो, ता शैला ने उस व्याह म भी याग दिया। क्या यह भी कोई सवारण घटना है? इन्द्रदेव का मानसिक विप्लव बढ रहा था। उनक मन म निश्चल क्राध धारे-धार सचित होकर उदासीनता का रूप धारण करने लगा। सायकान था। यता की हरियाली पर कही-वही हुपता हुई किरणा की छाया अभी पड़ रही थी। प्रकाश इव रहा था। प्रशान्त गगा का कछार शून्य हृदय योल पडा था। परार पर सरसो के यत म वसन्ती चादर विछी थी। नीचे शीतल वालू म कराकुल चिडिया का एक झुण्ड मौन हाकर बैठा था। कधो से सरमा फूला क घनेपन का चीरते हुए इन्द्रदेव ने उस स्पन्दनविहान प्रकृति-सह को जान्दोलित कर दिया। भयभीत कराकुल झुड-के-झुड उडकर उम धूमिल आकाश में मडराने लगे। इन्द्रदव क मस्तक पर काई विचार नहीं था । एक सन्नाटा उसक भीतर और वाहर था । वह चुपचाप गगा की विचित्र धारा को देखने लगे। चौवेजी ने सहसा आकर कहा-बडी सरकार बुला रही हैं। क्या? यह तो मैं हाँ बाबू श्यामलाल जी आय है इसी के लिए बुलाया होगा। तो मैं आता हूँ अभी जल्दी क्या है ? उसके लिए कौन-सा कमरा ? हूँ तो कह दो कि मां इसे अच्छी तरह समझती होगी। मुझसे पूछने की क्या आवश्यकता ? न हो मर ही कमरे म, क्या, ठीक होगा न न हो तो छोटी कोठी में या जहाँ अच्छा समझें । जैसा कहिए । तब यही जाकर कह दो । मै अभी ठहरकर आऊंगा । चौबे चले गये। इन्द्रदेव वही खडे रहे । शैला को इस अन्धकार क शैशव म वही दखने की कामना उत्तेजित हो रही थी और वह आ भी गई । इन्द्रदेव ने प्रसन्न होकर कहा-इस समय मैं जो भी चाहता, वह मिलता। क्या चाहते थे। ___तुमको यहाँ देखना । दखा, जाज यह कैसी सन्ध्या है। मैं तो लौटने का विचार कर रहा था। और मैं काठी स होती आ रही हूँ। ३१६ . प्रसाद वाड्मय