पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३५१

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तृतीय खण्ड निर्धन किसानो मे किसी ने पुरानी चादर को पीले रंग से रंग लिया, तो किसी की पगडी ही बचे हुए फीके रग म रंगी है। आज वसन्त-पचमी है न । सबके पास कोई न कोई पीला कपडा है । दरिद्रता मे भी पर्व और उत्सव तो मनाये ही जायगे । महंगू महतो के अलाव के पास भी ग्रामीणो का एक ऐसा ही झुड बैठा है । जौ की कच्ची वालो को भून कर गुड मिला कर लोग 'नवान' कर रहे हैं, चिल ठडी नही होने पाती । एक लडका, जिसका कठ मुरीला था, बसन्त गा रहा था मदमाती वोयलिया डार-डार दुखी हो या दरिद्र, प्रकृति ने अपनी प्रेरणा से सबके मन में उत्साह भर दिया था । उत्सव मनाने के लिए, भीतर की उदासी ने ही मानो एक नया रूप धारण कर लिया था। पश्चिमी पवन के पके हुए खेतो पर से सर्राटा भरता और उन्हे रौदता हुआ चल रहा था । बूढे महंगू के मन में भी गुद-गुदी लगी । उसने कहा-दुलरवा, ढोल ले आ, दूसरी जगह तो मुनता हूँ कि तू बजाता है, अपने घर काज-त्योहार के दिन बजाने मे लजाता है क्या रे? दुलारे धीरे से उठकर घर में गया । ढोल और मंजीरा आया । गाना जमने लगा । सब लोग अपने को भूलकर उस सरल विनोद मे निमग्न हो रहे थे । तहसीलदार ने उसी समय आकर कहा-महंगू ! सभा विशु खल हो गई। गाना-बजाना रुक गया। उस निर्दय यमदूत के समान तहसीलदार से सभी कॉपते थे। फिर छावनी पर उसे न बुलाकर स्वय महंगू के यहाँ उनके अलाव पर खडा था । लोग भयभीत हो गये । भीतर से जो स्त्रियाँ झांक रही यो उनके मुंह छिप गये। लडके इधर-उधर हुए, सब जैसे आतक मे त्रस्त । तितलो : ३२३