पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३६४

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तो फिर तैयार हो जाआ। नही, दो घंटे में उधर ही नील-काठी पर आकर तुम्ह लेती चलूंगी। बहुत अच्छा –पहार मैला उठ खडी हुई । वह सीधे बनजरिया की ओर चल पड़ी। मधुवन स बह चुकी थी, तितली उसकी प्रतीक्षा म वैठी होगी। शेला कुछ प्रसन्न-सी थी। उसन अज्ञात भाव से इन्द्रदेव को जो थोडा-सा दूर हटाकर श्यामदुलारी और माधुरी का अपने हाथो म पा लिया था, वह एक लाभ-सा उसे उत्साहित कर रहा था । परन्तु बीच-बीच म वह अपन हृदय म तर्क भी करती थी-इन्द्रदेव को मैं एक बार ही भूल सकूगोभी -अभी तो मैंने सोचा था कि चलकर इन्द्रदेव स क्षमा मांग लूंगी, मना लाऊंगी, फिर यह मेरा भाव कैसा? उसे खेद हुआ। और फिर अपनी भूल सुधारत हुए उसन निश्चय किया कि चुरा काम करते भी अच्छा हो सकता है । मैं इसी प्रश्न को लकर इन्द्रदेव मे अच्छी तरह बाते कर सपूगी और अपनी सफाई भी दे लूंगी। वह अपनी धुन म बनजरिया तक पहुँच भी गई, पर उस मानो ज्ञान नही । जब तितली ने पुकारा-वाह वहन । मैं कब से बैठी हूँ, इस तरह के आने के लिए कह कर भी कोई भूल जाता है तो वह आपे में आ गई। मुझे झटपट कुछ खिला दो। अभी-अभी मुझे शहर जाना है। वाह रे चटपट । बैठो भी, अभी हरे चने बनाती हूँ, तव खाना हागा । ठढा हो जान से वह अच्छा नही लगता। हम लोगो का ऐसा-वैसा भोजन, रूखा-सूखा गरम-गरम ही तो खा सकोगी। चावल और रोटियां भी तैयार हैं। अभी वन जाता है। तितली उस बैठाती हुई, रसोई-घर म चली गई । हरे चनो की छनछनाहट अभी बनजरिया में गूंज रही थी कि मधुबन एक कोमल लोकी लिए हुए आया। वह उसे बैठकर छीलने-बनाने लगा । शेला इस छोटी-सी गृहस्थी में दो प्राणियो को मिलाकर उसकी कमी पूरी करते देखकर चकित हो रही थी। अभी छावनी की दशा देखकर आई थी। वहां सब कुछ था, पर सहयोग नही । यहाँ कुछ न था, परन्तु पूरा सहयोग उस अभाव से मधुर युद्ध करने के लिए प्रस्तुत । शैला न छेडने के लिए कहा-तितली । मुझे भूख लगी है । तुम अपने पकवान रहन दो, जो बना हो, मुझे लाकर खिला दो। आई, आई, लो, मेरा हाथ जलने से बचा । मधुवन ने कहा-तो ले आओ न । ३३६ प्रसाद वाङ्मय