पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३८९

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पर वह स्त्री, जिसके सम्बन्ध में किसी तरह का कलक फैल चुका हो । उसके मधुवन मना कर रहा था कि वहाँ तुम मत जाओ, मैं ही बात कर लूंगा । किन्तु राजो का सहज तेज गया तो नही था । वह आज अपनी मूर्खता से एक नर विपत्ति खड़ी कर रही है, इसका उसको अनुमान भी नहीं हुआ था। वह क्य जानती थी कि यहाँ चौवे भी मर रहा है । भय और लज्जा, निराशा और क्रो से वह अधीर होकर रोने लगी। उसकी आँखो से आँसू गिर रहे थे । घबराहर से उसका बुरा हाल था । वाहर मधुवन क्या सोचता होगा? महन्त ने देखा कि ठीक अवसर है। उसने कोमल स्वर मे कहा-तो राज कुमारी ! तुमको चिन्ता करने की क्या आवश्यकता ? शेरकोट न सही, बिहारी जी का मदिर तो कही गया नहीं। यही रहो न ठाकुरजी की सेवा में पड़ी रहोगी और मैं तो तुमसे बाहर नहीं । घबराती क्यो हो ? ____ महन्त समीप आ गया था; राजकुमारी का हाथ पकडन ही वाला था कि वह चौककर खड़ी हो गई । स्त्री की छलना ने उसको उत्साहित किया । उसन कहा-दूर हो रहिए न ! यहां क्यो! कानुक महन्त के लिए यह दूसरा आमन्त्रण था। उसने साहस करके राजे का हाथ पकड लिया । मंदिर से सटा हुआ वह बाग एकान्त था। राजकुमारी चिल्लाती, पर वहां सहायता के लिए कोई न आता ! उसने शात होकर कहामैं फिर आ जाऊँगो । आज मुझे जाने दीजिए । आज मुझे रुपयों का प्रबन्ध करना सब हो जायेगा। पहले तुम मेरी वात तो मुनो।-कहकर वह और भी पाशव भीपणता से उस पर आक्रमण कर बैठा । राजकुमारी अब न रुकी। उसका छल उसी के लिए घातक हो रहा था । वह पागल की तरह चिल्लाई । दीवार के बाहर ही इमली की छाया में मधुवन खड़ा था । पांच हाय की दीवार नापत उसे कितना विलम्ब लगता? वह महन्त की खोपड़ी पर यमदूत-सा आ पहुंचा। उसके शरीर का असुरो का-सा सम्पूर्ण वल उन्मत हो उठा । दोनो हाथो से महन्त का गला पकहकर दवाने लगा । वह छटपटाकर भी कुछ बोल नहीं सकता था। और भी बल से दवाया। धीरे-धीरे महन्त का विलास-जर्जर शरीर निश्चेष्ट होकर दोला पड़ गया ! राजकुमारी भए से मूच्छित हो गई थी, और हाय से निर्जीव देह को छोडते हुए मधुवन जैसे चैतन्य हो गया। बरे यह क्या हुआ? हत्या !-मधुवन को जैसे विश्वास नहीं हुआ, फिर उसने एक बार चारो ओर देखा। भय ने उसे ज्ञान दिया, वह समझ गया कि तितली : ३६३