पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४३८

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चूर हो रहा है। न जाने क्या, मरे मन म एसो भावना उठती है कि मुझे मैं 'जैसी है-उसी रूप म' स्नेह करने के लिए कोई प्रस्तुत नही । कुछ-न-कुछ दूसरा आवरण लोग चाहते हैं। इन्द्रदेव वायू भी। उनका समर्पण तो इतना निरीह है कि मैं जैसे वर्फ की-सी शीतलता मे चारा आर से घिर जाती हूँ । मैं तुम्हारी तरह का दान कर देना नही सोख सकी । मैं जैस और कुछ उपकरणो से बनी हूँ | तुम जिस तरह मधुबन को अरे सुनो तो, मेरी बात लकर तुमने अपना मानसिक स्वास्थ्य खा दिया है क्या? वह ता एक कर्तव्य की प्ररणा है । तुम भूल गई हा। बापू का उपदेश क्या स्मरण नही है ? प्रसन्नता से सब कुछ ग्रहण करने का अभ्यास तुमने नहीं किया । मन को वैसा हम लोग अन्य कामा के लिए तो बना लेते हैं पर कुछ प्रश्न ऐस होते हैं जिनमे हम लोग सदैव सशोधन चाहत हैं। जव सस्कार और अनुकरण की आवश्यकता समाज म मान ली गई, तब हम परिस्थिति के अनुसार मानसिक परिवर्तन के लिए क्या हिचक ? मरा एसा विश्वास है कि प्रसन्नता से परिस्थिति को स्वीकार करके जीवन-यात्रा सरल बनाई जा सकती है । वहन । सुम कही भूल तो नही कर रही हो ? तुम धर्म के बाहरी आवरण स अपने को ढंककर हिन्दू-स्त्री बन गई हो सही, किन्तु उसकी संस्कृति को मूल शिक्षा भूल रही हो । हिन्दू-स्त्रो का श्रद्धापूर्ण समर्पण उसकी साधना का प्राण है । इस मानसिक परिवर्तन को स्वीकार करो । देखो, इन्द्रदेव बाबू कैसे देव-प्रकृति के मनुष्य है । उस त्याग को तुम अपने प्रेम से और भी उज्ज्वल बना सकती हो। यही तो मुझे दुख है । मैं कभी-कभी सोचती हूँ कि मुझ वन-विहागिनी को पिंजरे में डालने के लिए उनको इतना कष्ट सहना पडा। किसी तरह मैं अपने को मुक्त करके उनका भी छुटकारा करा सस्तो। _तुम अपने जीवन का, स्त्री-जीवन को, और भी जटिल न बनाओ। तुम इन्द्रदेव के स्नेह को अपनी ओर से अत्याचार मत बनाओ। मैं मानती हूँ कि कभी-कभी हित चिन्ता समाज में पति-पत्नी पर, पिता-पुत्र पर, भाई-भाई पर, अपन स्नेहातिरेक को अत्याचार बना डालता है, परन्तु उस स्नेह को उसक वास्तविक रूप मे ग्रहण कर लेने पर एक प्रकार का मुख-सतोप होता ही है। तो तुम मधुबन का अब भी प्यार करती हो? इसका ता कोई प्रश्न नहीं है । वह्न शैला ससार भर उनका चोर हत्यारा और डाकू कहे, किन्तु मैं जानती हूं कि वह ऐसे नही हो सकते । इसलिए मैं कभी उससे घृणा नही कर सकती। मेरे जीवन का एक-एक कोना उनके लिए, उस ५१४३ प्रसाद वाङ्मय