पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४६१

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उसकी आँखे आशा-विहीन सन्ध्या और उल्लास-विहीन उपा की तरह काली और रतनारी थी। कभी-कभी उनमे दिग्दाह का भ्रम होता, वे जल उठती, परन्तु फिर जैसे वुझ जाती । वह न वेदना थी न प्रसन्नता । उसके धुंघराले बाल जटा न बन पाये । छोटी-छोटो स्वत बढने वाली दाढी भी कुछ यो ही कालिमा से उसकी मुवर्ण-त्वचा को रेखाकित कर रही थी। शरीर केवल हाड से बना प्रतीत होता था; परन्तु उसमे वल का अभाव नहीं था। वह अभी आकर, शिप्रा के शीतल जल से स्नान कर घाट पर बैठा था। उसके मणिबन्ध मे, किसी नागरिका के जूडे की शिप्रा मे गिरो हुई माला पडी थी, अकारण । उसमे अभी गन्ध थी। फिर भी उसे सूंघने की इच्छा नही । वह परदेशी था। उसकी एक छोटी गठरी वही पड़ी थी। शिप्रा मे जल-विहार करने वालो की कमी न थी । वसन्त की सन्ध्या मे आकाश प्रसन्न था। प्रदोष का रमणीय समय, किन्तु वह तो अनमना, थका-सा तब भी जैसे इन सब की वह उपेक्षा कर रहा था। तूर्य-नाद और दुन्दुभि का गम्भीर घोप गंजने लगा। चारो ओर जैसे हलचल मची। लोग उठकर चलने लगे । परन्तु वह स्थिर बैठा रहा । किसी ने पूछा पूछा--"तुम न चलोगे क्या ?" "कहाँ ?" "मन्दिर में"-- "किस मन्दिर में?" “यही महाकाल की आरती देखने".. "अच्छा"--कहकर भी वह उठा नही। घाट जन-शून्य हो गया । मन्दिर को पताका धूमिल आकाश में लहरा रही थी। वह बैठा रहता; परन्तु चपल घोडो से सज्जित एक पुष्प-रथ, वही घाटी के ममीप आकर रुका। उस पर बैठे हुए युवक ने सारथी से कहा-"बस यही, किन्तु वे सब कहाँ है, अभी नही आये । इतने में अश्वारोहिया की एक छोटी-सी टुकडी वहां आकर खडी हुई । रथी ने कुछ सकेत किया । वे सब उतर पडे । शिप्रा-तट के बट की शाखाओ मे घोड़ो के इरावती: १३६