पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४७४

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"और कुछ तो नहीं देव । प्रार्थना ही समझी जाय ।" चतुर दूत ने उत्तर दिया। धर्म-कार्य म श्रीमान् की यह सहायता बहुमूल्य होगी। ___"हा ऐसा तो मैं समझता हूँ कि खारवेल को स्वर्ण की आवश्यकता नही, किन्तु मूत्ति को ही होगी। अच्छा तुम्ह इसका उत्तर मिलेगा। जाओ, विश्राम करो।" सविनय नमस्कार करके दूत नायक के साथ चला गया। सभा एक क्षण तक मान रही। वृद्ध सनापति ने साधि विग्रहिक स पूछा-"क्या सैन्य की आवश्यकता होगी" "होगी भी तो सेन्य प्रस्तुत हे कहा? -धीरे स साधि विग्रहिक न कहा । चिन्तित सम्राट् न भी यह फसफसाहट मुनी और कहा "जय हो देव । क्या आज्ञा है ?" सेनापति न पूछा । किन्तु सम्राट् न साधि विग्रहिक की ओर देख कर कहा-"यह तो स्पष्ट ही छेडछाड है।' "क्या सैन्य प्रस्तुत होना चाहिए? यह तो परम भट्टारक न यथाथ ही सोचा है।" "देवगुप्त । मृद्गगिरि म कितने गुल्म है " "एक सौ गुल्म देव ।" दवगुप्त ने कहा। "वहाँ से खारवेल का स्कन्धावार कितन योजन पर है ? किन्तु इससे क्या, आधी सेना रोहिताश्व दुर्ग मे पहुँचनी चाहिए शीघ्र । कौन सेना को लेकर शीघ्र पहुँचने का भार लेता है ?" "जिसको आज्ञा हो । परम भट्टारक प्रसन्न हो तो मैं हो जाऊँ। किन्तु एक निवदन है, बिना गज-सेना के वहाँ की रक्षा दृढ न होगी।" वृद्ध बलाधिकृत न कहा। महानायक के मुख पर कुछ स्मित को रेखाएं बन-विगड रही थी। किन्तु उसके बोले बिना काम नही चलता था। पुष्यमित्र ने छोटा-सा खड्ग निकाल कर शिर से लगाया। सम्राट ने पूछा, “तुम कुछ कहना चाहते हो क्या ?" "हाँ देव ।" "क्या " "कुसुमपुरी को आधी गज-सना भेजी जा सकती है, अधिक नही, क्याकि शोण के तट को भो..." "किन्तु जाता कौन है ?" ४५४ : प्रमाद वाङमय