पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४९९

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भिक्षु ने द्वार पर जाकर घटा बजाया । भिक्षुणी ने आकर पूछा-"क्या है नार्य ?" "सघ-स्थविरा के साथ इरावती को भेजो । महास्थविर खडे हैं।" भिक्षुणी भीतर चली गई। साथ में इरावती और एक वृद्धा भिक्षुणी का लेकर आई । महास्थविर की सवने वन्दना की। "मैं यही पूछने आया है कि क्या अनुशासन में भी भिक्षुणी-विहार स्वतन होना चाहता है ? इरावती ने वही अपराध आज फिर किया है ?" "हाँ, मैं एक तीर्थक से बाते कर रही थी।" "विनय भग करके न?" "मैं नहीं कह सकती आर्य ।" "क्या तुम्हारे लिए यह अच्छा नही है कि तुम स्वय विहार छोड कर चली जाओ !" --महास्थविर ने कहा, पर रुकते हुए। "नही आर्य । यह सुधर जायगी। फिर अपने को संभाल लेगी। इसकी जैसी विनय की पडिता और शील देने वाली दूसरी यहाँ कोई भिक्षुणो नही है।' -वृद्धा ने कहा। "परन्तु मैं नहीं सुधर सकती । आर्या । मुझे क्षमा कीजिए, मेरे लिए निर्वासन ही उचित है । तो क्या मैं जा सकती हूँ ?" - इरावती ने कहा। "अरे भगिनी! तू बावली हो गई है ! कहाँ जायगी ?" ___ "कही भी, इस दिवालोक मे घूमते-घूमते सन्ध्या तक कही न कही शरण मिल ही जायगी। मैं भी देख लूं कि इस विश्व म, मुझे खडी होने के लिए कही हाथ भर भूमि है कि नही । ऊपर तारा या मेघो को छाया मिलती है कि नही ! आर्य । मिलेगी ! अवश्य मिलेगी। तो मैं जाती हूँ"-कहकर उसने एक बार झुककर प्रणाम किया और चल पडी। महास्थविर ने दीर्घ निश्वास लेकर कहा-"तथागत व्यवस्था बिगडने के लिए जैसे प्रस्तुत है। क्या उन्होंने जो कहा था कि स्त्रिया को सघ मे लेने से केवल ५०० बरस धर्म चलेगा, वही सत्य होने जा रहा है, तो फिर क्या करूं मैं। स्थचिरा प्रणाम करके विहार मे लौट गई। उसे जैसे कोई भयानक रोग हो गया था। वह लडखडाठी भीतर चली गई। और महास्थविर ने कहा "तुम जाओ, धर्म महामात्र को सूचना दो कि इरावती विहार से चली भिक्षु चला गया और महास्थविर उल्टे विहार की ओर लौटे । इरावती सचमच बावली थी। उसे अभी आनन्द का सदेश मिल चुका था। किन्त जन्म इरावती : ४८१ - -